ॐ तत्सत् ! ज्यादातर लोग सनातन
मतलब हिंदू धर्म को महज मूर्तिपूजा के रूप में देखते हैं | राम, कृष्ण इत्यादि के
चित्रों में देखते हैं | ये सब तो केवल
धर्म की प्राथमिक कक्षा मात्र है | असली
धर्म तो महापुरुषों द्वारा दी गई शिक्षाएँ हैं | जिन्हें हमें अपने जीवन में उतरना
है | या कम से कम उतारने का प्रयास करना है | मंदिर न जानेवाले सदाचारी मंदिर जानेवाले दुराचारियों से लाख
गुना बेहतर है | इसी बात को आगे बढ़ाते हुए आप सब के सामने प्रस्तुत है गोस्वामी
तुलसी जी द्वारा विरचित रामचरित मानस के मोती | एक बार निश्चित पढ़े तथा देखें
की आप कहाँ खडें हैं| स्थान लंका में युद्ध का अंतिम दौर -------
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन
भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥
भावार्थ:-रावण को रथ पर और श्रीरघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण
अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्रीरामजी के चरणों की
वंदना कर के वे स्नेह पूर्वक कहने लगे॥1॥
नाथ न रथ नहि तन पदत्राना। केहि
बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपा निधाना।जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥2॥
सुनहु सखा कह कृपा निधाना।जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥2॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह
बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा ? कृपानिधान श्रीराम जी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥2॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।सत्य सील
दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम पर हित घोरे।छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
बल बिबेक दम पर हित घोरे।छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना ) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥
ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म
संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
भावार्थ:-ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम
सिली मुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥
भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय
का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।जीतन कहँन कतहुँ रिपु ताकें॥6॥
भावार्थ:-हे सखे! ऐसा धर्म मयरथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रुहीन
हीं है॥6॥
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो
बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥80 क॥
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥80 क॥
भावार्थ:-हे धीर बुद्धिवाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥80 (क)॥
हरि ॐ