(((( सकटू चोर और कृष्ण ))))
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प्राचीन काल में एक चोर था जिसका नाम ‘सकटू’ था । वह अपने शहर का नामी चोर था ।
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प्रतिदिन चोरी करना उसकी आदत बन गई थी । जब तक वह रात को किसी के घर में कूदकर चोरी न कर लाता, उसे रात-भर नींद नहीं आती थी । भले ही चोरी में उसके हाथ दुअन्नी आती ।
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एक रात सबद चोर अपने नित्यकर्म के लिए शहर की अंधेरी गलियों में घूम रहा था उसे उचित स्थान और अवसर की खोज थी ।
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उसी शहर में एक धनी व्यक्ति के यहा रात्रि जागरण का कार्यक्रम हो रहा था जिसमें वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन के साथ भगवन्नाम का वर्णन किया जा रहा था ।
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गायक जो भी था निश्चय ही सुरीले कठ का स्वामी तो था ही अच्छा भगवद्भक्त भी था । वह दो पंक्तियां गाने के बाद ईश्वर की महिमा का ऐसा वर्णन करता कि सुनने वाले मुग्ध हो जाते ।
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सकटू चोर भी भटकता हुआ उस घर में आ गया जहाँ प्रागण में विशाल भीड़ के समक्ष गायक ने भगवन्नाम की स्वरलहरी छेड़ रखी थी ।
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सकटू का मस्तिष्क क्रियाशील हो गया । उसके विवेक में यह बात आ गई कि प्रांगण में जैसा रस बरस रहा था उसे सुनने के लिए निश्चय ही घर के सभी सदस्य वहीं उपस्थित होंगे थे और घर खाली पड़ा होगा ।
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ऐसा सुअवसर सबद भला क्यों गवांने वाला था ? वह तत्काल भवन के पिछवाड़े गया और रस्सी डालकर घर में प्रवेश कर गया ।
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उसका सोचना सही निकला । घर निर्जन था । सकटू चोर धन-दौलत छूने में जुट गया ।
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अंधकार होने की वजह से उसे कुछ नहीं मिल पा रहा था तो वह एक खिड़की को जरा खोलने के इरादे से खिड़की के पास पहुंचा । उसने खिड़की जरा खोली तो थमक गया ।
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अभी-अभी गायक ने रत्न-मणि-माणिक्य की चर्चा की थी । वह ध्यान से सुनने लगा ।
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”प्रात काल होने पर ग्वालबाल कृष्ण और बलदाऊ को खेलने के लिए बुलाने आ जाते हैं ।” गायक कह रहा था :
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”तब तक माता यशोदा अपने दोनों पुत्रों को नहला चुकी थीं । अब वे कृष्ण और बलराम को गहनों से सजा रही थीं । करोड़ों रुपए के गहने ।
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मुकुट में झिलमिलाते हीरे बाजूबद में दमकते हीरे गलहार में मणियां जिससे प्रकाश किरणें फूट रही थीं । कानों में स्वर्ण के बड़े-बड़े झिलमिलाते कुंडल ।
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कितने सुंदर लग रहे थे दोनों ! यह वृंदावन की सबसे मनोहर झांकी है । तत्पश्चात स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित कृष्ण-बलराम गौ चराने वन की तरफ चल पड़ते हैं ।”
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सकटू चोर ने जब यह सुना तो उसके दिमाग में खलबली मच गई । ‘मैं भी निरा मूरख हूं । थोड़े से धन-माल के लिए रातों को मारा-मारा फिरता हूं ।
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जबकि यह पंडित बता रहा है कि दो बच्चे अरबों के गहने पहनकर जगंल में गाय चराने जाते हैं ।
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इससे उनका पता पूछ लेता हूँ और जंगल में जा दबोचता हूं । बच्चे ही तो हैं । मेरा रूप देखकर ही भयभीत हो जाएंगे वरना एक-एक थप्पड़ जड़ दूंगा तो गहने उतारने ही पडेंगे ।’ सकटू सोच रहा था ।
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अब सकटू को उस घर से कोई मोह नहीं रहा और वह वहां से निकलकर वापस कार्यक्रम में आ बैठा ।
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अब उसे कार्यक्रम के समाप्त होने की प्रतीक्षा थी । अर्धरात्रि बीत जाने पर कार्यक्रम समाप्त हुआ तो प्रसाद वितरण हुआ ।
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सकटू ने भी प्रसाद लिया और बाहर गली में आ खड़ा हुआ । काफी देर पश्चात उसे वह गायक पंडित अकेला आता नजर आया । उसका चित्त प्रसन्न हो उठा ।
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पंडित उसके पास से गुजर गया तो सकटू उसके पीछे लग गया । एक निर्जन स्थान देखकर सकटू ने पंडित की बाह पकडू ली ।
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”तनिक ठहर जाओ पंडितजी महाराज!” सकटू बोला: ”लपके कहा जाते हो ? हम भी तो तुम्हारे पीछे हैं काम छोड़कर ।”
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”क…क…कौन हो तुम ?” पंडित जी भयभीत हो गए ।
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”मैं सकटू चोर हूं । नाम तो अवश्य ही सुना होगा ?”
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”ममुझसे क्या चाहते हो भाई ! मैं तो निर्धन ब्राह्मण हूं ।”
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”महाराज! आप अपनी मूर्खता से निर्धन हैं अन्यथा आपसे बड़ा धनवान कौन होता । आप तो ऐसे खजाने के बारे में जानते हैं जो करोडों से भी ज्यादा है ।”
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पंडित जी कुछ भी नहीं समझे । ”अब आप मुझे उन दोनों बालकों का पता बताइए महाराज! जो इतने रत्न जड़ित स्वर्ण आभूषण पहनकर गौ चराने वन में जाते हैं ।
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मैं उनसे गहने छीनकर लाऊंगा और निश्चय जानिए आपको भी मालामाल कर दूंगा ।”
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पंडित जी पहले तो अचकचाए फिर उसकी मूर्खता पर मन-ही-मन हंस पड़े ।
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”अच्छा वे बालक ! उनका पता जानना चाहते हो ? भाई, वे तो बड़ी दूर रहते हैं ।”
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“कोई बात नहीं । मैं चला जाऊंगा । आप बस मुझे उनका पता और उनके पास के धन-माल को सविस्तार बता दीजिए । उनके गहने कितने के होंगे ?”
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”उन गहनों का मूल्य कोई नहीं आक सकता । वे तो अनमोल हैं । उनके गहनों में एक कौस्तुभ मणि है जो अकेली संसार की समस्त सम्पदा के बराबर है ।”
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”अच्छा !” चोर के नेत्र आश्चर्य से फैले : ”इतनी बहुमूल्य मणि !”
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”हां भाई ! उस मणि जैसा रत्न तो पृथ्वी पर दूसरा है ही नहीं । वह मणि जहां होती है वहाँ अंधकार नहीं रह सकता ।”
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”महाराज ! अब मुझसे धैर्य नहीं हो रहा । मुझे जल्दी उन बालकों का पता और उनके नाम बताओ । नाम जानना भी आवश्यक है । नाम से ढूंढने में जरा सरलता भी रहेगी ।” सकटू व्यग्रता से बोला ।
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”नाम तो उनके कृष्ण और बलराम हैं ।”
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“किरशन और बल्लाराम !”
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”तुम निपट वजमूर्ख हो ! अच्छा ऐसा करो नंदलाल याद रखो । यह भी नहीं रख सकते तो सांवरिया याद रखी ।”
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”सांवरिया ! यह अच्छा है । रटता जाऊंगा । याद हो जाएगा । अब सुगम मार्ग बताओ जिससे जल्दी पहुंच सकुं ।”
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”वृंदावन चले जाओ । वन में कदम्ब का पेड़ ढूंढ लेना । सांवरिया वहीं बांसुरी बजाता है । हो सकता है तुम्हें मिल जाए ।”
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”मिलेगा कैसे नहीं ! अच्छा अब चलता हूँ । लौटकर आपका हिस्सा आपको अवश्य देकर जाऊंगा । प्रणाम पंडित जी !”
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”प्रणाम !” पंडित जी ने चैन की सांस ली । पीछा छूटा निपट मूर्ख से । अब भटकेगा वन-वन ‘सांवरिया-सांवरिया’ रटता हुआ ।
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सकटू वहां से चल दिया । मन-ही-मन वो ‘सांवरिया’ की रट लगाए हुए था । वह सीधा वृंदावन के मार्ग पर चल पड़ा । न उसे भूख सता रही थी और न ही प्यास लग रही थी ।
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वह नहीं चाहता था कि खाने-पीने के चक्कर में वह उस बालक का नाम भूल जाए ।
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इसी धुन में चलता हुआ गिरता-पड़ता सांवरिया रटता वह वृंदावन के मनोहारी वन में पहुंच गया ।
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उसे वन में प्रवेश करते ही कदम्ब का वृक्ष दिखाई पड़ गया तो उसकी समस्त थकान दूर हो गई । अब वह अपने लक्ष्य के बिल्कुल समीप जो था !
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चूंकि रात्रि थी इसलिए अब तो प्रात: काल में ही वे बालक गाय चराने आते । उसे सारी रात्रि प्रतीक्षा करनी ही होगी ।
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वह वहां पर ही बैठा-बैठा सांवरिया रटता रहा और भोर की प्रतीक्षा करने लगा । प्रात: हुई तो पूर्व दिशा से सूर्य की लालिमा पृथ्वी पर पड़ी ।
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बड़ा ही मनोहारी प्रकाश था । सकटू के हृदय में व्यग्रता घर किए थी वह कम-से-कम पचास बार पेड़ से कूदा और फिर चढ़ा । सूर्य देव गरमाने लगे थे । उसी अनुपात में सकट का हृदय भी व्याकुल हो रहा था ।
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सच बात तो यह है कि ईश्वर को पाने के लिए इसी व्याकुलता की जरूरत होती है । ईश्वर पूजा-पाठ करने से नहीं मिलते उपवास-दान करने से भी उन्हे पाना मुश्किल है ।
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उन्हें पाने के लिए तो बस उनके दर्शन की तीव्रतम् अभिलाषा मन में होनी चाहिए । भोले सकटू के मन में प्रभु-दर्शन की वह अभिलाषा उत्पन्न हो गई थी ।
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भाव के भूखे दीनानाथ को इससे क्या मतलब था वह कि कौन था क्या करता था उन्होंने तो सकटू के भाव को परखा और खुद उससे मिलने चल पड़े ।
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अंतत: उसे एक दिशा में दूर कहीं बांसुरी की स्वर लहरी सुनाई दी । वह वृक्ष से नीचे कूद आया । बांसुरी की आवाज प्रतिपल करीब आती जा रही थी ।
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उस स्वर लहरी में न जाने कैसा जादू था कि सबद को अपने मनो-मस्तिष्क लहराते प्रतीत हुए ।
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एक अद्भुत नशा उसके विवेक से टकरा रहा था । वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और वहीं मूर्च्छित हो गया ।
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जिस बांसुरी की धुन सुनकर कभी ब्रह्मा भी मोहित हो गए थे भला उस धुन से सकटू मदहोश क्यों नहीं हो जाता ।
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उसे चेत हुआ तो उछलकर खड़ा हुआ । अब उसे जगल में एक दिव्य प्रकाश फैला नजर आया । दूर धूल उड़ाती गाए नजर आईं ।
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व्याकुल होकर वह दौड़कर उधर लपका तो गायों से बहुत पीछे उसे उस मनोहर प्रकाश की छटा बिखेरते वे मुरली मनोहर दाऊ के साथ नजर आए ।
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”ओ सांवरिया ! तनिक ठहर तो लाला !” उसने उच्च स्वर में पुकारा ।
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दोनों बालक मुड़े तो सकटू सम्मोहित हो गया ।
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‘अहा कितने सुंदर मुख है इन बालकों के !’ उसका हृदय कह उठा : ‘आखों में ! कितनी सुलभता है ! इतने सुंदर और भोले बालक तो मैंने कहीं नहीं देखे ।
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कैसे निर्दयी माता-पिता हैं इनके जो ऐसे सुकुमार बालकों को वन में गाय चराने भेज देते हैं । ऐसी मनोहारी छवि ! इन्हें तो देखते रहने को जी चाहता है ।’
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‘मैं इनसे गहने कैसे छीनूंगा । मेरा तो हृदय ही फट जाएगा परंतु मैं इतनी दूर आया हूं गहने तो छीनूंगा ।
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पंडित से कौल करके आया है मैं तो चोर हूं मुझे इनसे मोह क्यों हो रहा है ? मुझे तो गहने लेने हैं ।’
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”अरे लाला भागे कहां जा रहे हो ? मैं कितनी मुसीबत भुगतकर यहां आया हूं, कुछ पता है ?
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सकटू चोर है मेरा नाम । सुना ही होगा । अब अपने सब गहने उतारो और चुपचाप घर चले जाओ ।” सकटू ने घुड़ककर कहा ।
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”हम अपने गहने तुम्हें क्यों दें ?” सांवला बालक मंद मुस्कान से बोला ।
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”देते हो या कसकर थप्पड़ जमाऊं” चोर ने आखें निकालीं ।
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”नहीं देंगे ।”
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”अच्छा ! तो मुझे तुम दोनों की पीठ तोड़नी पड़ेगी ”
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”अरे बाप रे ! कोई बचाओ । बाबा अरे ओ बाबा ! बचाओ !”
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चोर ने झपटकर सांवरिया का मुंह दबा लिया । जैसे बिजली चमक उठी । उस स्पर्श ने सकटू के अंतर तक बिजली कौंधा दी । वह जैसे पाषाण में बदल गया ।
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अंतर में अभी भी कहीं तार झंकृत हो रहे थे । और सबद चोर को जाने क्या हुआ वह रो पड़ा ।
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”अरे तुम कौन हो ? क्यों तुम्हारे स्पर्श से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं बहुत हल्का हो गया हूं ?
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मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं किसी अलौकिक आनंद के सागर में डूब रहा हूं । तुम्हारी मुग्ध करने वाली छवि मुझे मेरे उद्देश्य से भटका रही है । तुम निश्चय ही नर रूप में कोई देव हो ।”
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”अरे नहीं बाबा !” सांवरिया ने कहा : ” हम तो साधारण बालक हैं । हम तो नंदराम के बेटे हैं ।”
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”जो भी हो । अब तुम जाओ । अब मैं तुम्हारे गहने नहीं लूगा । अब मेरे हृदय में कोई कामना नहीं रही ।
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बस तुम एक बार अपनी छोटी सुदर हथेलियों को चूम लेने दो । मैं पूर्ण तृप्त हो जाऊंगा ।
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अब मैं कहीं जाने वाला नहीं । यहीं इसी वृक्ष के नीचे रहूँगा ताकि प्रतिदिन तुम्हारी सलोनी सूरत निहार सकूं।
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तुम प्रतिदिन कुछ पल के लिए मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ करते रहना । जिस दिन तुमने दर्शन नहीं दिए मैं उसी दिन व्याकुल होकर प्राण त्याग दूंगा ।”
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”और यदि हम तुम्हें अपने गहने दे दें तब ?”
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”गहने ! गहनों का अब मैं क्या करूगा । नहीं मुझे तुम्हारे दर्शनों के अलावा किसी सुख की कामना नहीं है ।”
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”फिर उस पंडित को क्या मुह दिखाओगे जिससे कहकर आए हो कि तुम निश्चय ही उसे मालामाल कर दोगे ?”
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”अरे वाह! तुम्हें कैसे मालूम ?” चोर चकित हो गया ।
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”हमें सब मालूम है । लो ये गहने ले जाओ अन्यथा वह पंडित तुम्हारी हंसी उड़ाएगा कि तुम दो छोटे बालकों से गहने न ला सके ।”
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”बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु तुम्हारे माता-पिता तुम पर गहनों के लिए क्रोधित नहीं होगे ?”
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”नहीं होंगे । हमारे पास बहुत गहने हैं । तुम फिर आना । हम तुम्हें और भी गहने देंगे ।” श्रीकृष्ण ने अपने गहने उतारे ।
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”फिर मैं ऐसा करता हूँ कि तुम्हारे गहने ले जाकर उस पंडित को दिखाता हूं । फिर आकर तुम्हारे गहने लौटा दूंगा । इस तरह मेरी भी बात रह जाएगी और तुम्हारे गहने भी तुम्हें मिल जाएंगे ।
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मैं तो बस तुम्हारी मनमोहिनी छवि देखकर ही जीवित रह सकता हूं । इन गहनों से मेरा जीवन नहीं चलेगा ।”
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”ठीक है । जैसा तुम्हें उचित लगे ।” श्रीकृष्ण ने कहा और दोनों ने अपने गहने उतारकर पोटली में बाँधकर उसे दे दिए ।
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सकटू वहां से चल दिया इस उत्कठा में कि उसे शीघ्र वापस भी आना है बिना कहीं विश्राम किए उस पंडित के पास पहुचा ।
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”महाराज !” वह पंडित से बोला: ”आप बड़े निर्दयी हैं । ऐसे सुकुमार बालकों के गहने लूटने भेज दिया ।
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अरे मेरा हृदय उन्हें देखते ही बदल गया । कैसी मनोहारी छवि थी उनकी ! मैं तो उनका दास बन गया ! कितने दयालु भी हैं ! मैं नहीं चाहता था फिर भी अपने गहने मुझे दे दिए ।
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यह देखिए कितने सारे गहने हैं । यह रही वह अनमोल कौस्तुभ मणि ! यह रहा रत्नजडित बाजूबंद । देख-भर लो दूंगा नहीं । वापस करने का वचन दे आया हूं ।”
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पंडित तो खुली पोटली से जगमगाते रत्न आभूषण को देखकर ही चक्कर खा गया । यह कैसा चमत्कार था !
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वह शठ पापी चोर कैसे उस दिव्य मूर्ति के दर्शन पा सका जिसके लिए बड़े-बड़े साधु योगी जगत को त्यागकर दिन-रात उसी की लौ में रमे रहते हैं ?
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”यह सब कहा से ले आया तू ?” पंडित जी ने पूछा ।
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”कहाँ से ? अरे यह उन्हीं बालकों के गहने हैं जिनका पता तुमने मुझे बताया था । यह उसी सांवरिया के गहने हैं !”
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”तेरी लीला अपरम्पार है गिरधारी !” पंडित जी के मुख से निकला :
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”मैंने जीवन-भर तेरी स्तुति की । रात-रात भर जागकर तेरा गुणगान किया और तूने इस वजमूर्ख पापी चोर को जो अपने कर्मों से सज्जनों को त्रास देता है अपने गहने तक दे डाले ?
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वाह रे छलिया मेरी धूपबत्ती भी तुझे न सुहाई और इस दुष्ट की राहजनी पर प्रसन्न हो गया !”
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”अब चलता हूं पंडित जी ! सुबह तक पहुंचना है । उनके गहने वापस करने हैं मुझे तो अब वहीं बसेरा करना है और उन मनोहर बालकों के प्रतिदिन दर्शन करूंगा ।”
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”अच्छा! मुझे तो तेरी बात पर विश्वास नहीं है । क्या तू मुझे उनसे मिला सकता है ?” पंडित जी ने कहा ।
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”क्यों नहीं । चलो मेरे साथ । पर दूर बहुत है पंडित जी ! मार्ग भी बहुत कठिन है । सुबह तक पहुंचना है । कहीं भी रुकना नहीं है ।
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सोच लीजिए परंतु लाला सांवरिया से विनती करके तुम्हें कुछ गहने अवश्य दिलवा दूंगा ।”
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पंडित जी तत्काल उसके साथ चल पड़े । रास्ता बड़ा कठिन था । सकटू तो जाने किस धुन में चला जा रहा था मगर पंडित जी की तो पिंडलियां दुखने लगी थीं ।
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जी चाह रहा था कि वहीं सो जाएं परंतु एक सुअवसर उसे मिलता प्रतीत हो रहा था जिसे वह किसी भी मूल्य पर गवाना नहीं चाहता था ।
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रात्रि-भर की यात्रा के पश्चात भोर का प्रकाश फैला तो सकटू हर्षित स्वर में नाचने लगा ।
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”पंडित जी ! यही है वो स्थान जहां वे दोनों मुझे मिले । अब थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी होगी । वे गाएं लेकर आते होंगे ।
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आप एक काम कीजिए पेड़ पर चढ़ जाए । नए आदमी को देखकर बच्चे डर सकते हैं ।”
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पंडित जी उस कदम्ब के पेड़ पर चढ़ गए । थोड़ा समय बीता ।
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”पंडित जी ! वो आ गया । उसकी बांसुरी की मधुर धुन सुन रहे हो न ?” सकटू प्रसन्नता से चीखा : ”वह आ रहा है । अब थोड़ी ही देर लगेगी ।”
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”मुझे तो कोई बांसुरी नहीं सुनाई पड़ रही ।” पंडित व्यग्र हो उठा ।
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”वह अभी आया जाता है । आपके कानों में कोई विकार लगता है ।” तब तक भक्तवत्सल भगवान कृष्ण और बलराम उसके समीप आ गए । दोनों ही बड़ी मंद-मंद मुस्कान से हंस रहे थे ।
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”आओ लाला । यह लो अपने गहने । गिन लो । मैंने पंडित जी को एक भी नहीं दिया । पहन लो अपने गहने परतु एक बात बताओ मेरे साथ पंडित आए हैं उन्हें आपकी बांसुरी की आवाज क्यों नहीं सुनाई दी ?”
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करुणानिधि ने मुस्कराकर पेड़ पर छिपे पंडित को देखा । ”पंडित जी नीचे आओ । देख लो सांवरिया को और गहने मांग लो ।”
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पंडित जी नीचे तो उतरे परतु कुछ दिखाई तो दे ही न रहा था !
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”यहां तो कोई नहीं है?” वह बोले ।
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”ऐं आपकी आखों में भी कुछ हो गया ? सामने खड़े बालक नजर नहीं आ रहे ?
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लाला ! ” सकटू भगवान से पूछ बैठा: ”यह क्या रहस्य हैं ! पंडित जी को न सुनाई देता है न दिखाई देता है । यह मुझे झूठा कह रहे हैं ।
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लाला ! ऐसा मत करो । गहने मत देना परंतु पंडित जी को अच्छा कर दो ।”
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”अच्छी बात है ! तुम मुझे और इन्हें एक साथ स्पर्श करो ।” कृष्ण ने कहा ।
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सकटू ने ऐसा ही किया तो पंडित जी के दिव्य चक्षु खुल गए । और वह प्रेम विह्वल होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े ।
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सकटू चोर निरंतर अपने ईष्ट की मोहक छवि निहार रहा था । आस्था और श्रद्धा के साथ लगन हो तो परमपिता परमात्मा व्यक्ति के निश्छल प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं । यह सकटू चोर की निष्कपट लगन से सिद्ध हो गया ।
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प्राचीन काल में एक चोर था जिसका नाम ‘सकटू’ था । वह अपने शहर का नामी चोर था ।
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प्रतिदिन चोरी करना उसकी आदत बन गई थी । जब तक वह रात को किसी के घर में कूदकर चोरी न कर लाता, उसे रात-भर नींद नहीं आती थी । भले ही चोरी में उसके हाथ दुअन्नी आती ।
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एक रात सबद चोर अपने नित्यकर्म के लिए शहर की अंधेरी गलियों में घूम रहा था उसे उचित स्थान और अवसर की खोज थी ।
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उसी शहर में एक धनी व्यक्ति के यहा रात्रि जागरण का कार्यक्रम हो रहा था जिसमें वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन के साथ भगवन्नाम का वर्णन किया जा रहा था ।
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गायक जो भी था निश्चय ही सुरीले कठ का स्वामी तो था ही अच्छा भगवद्भक्त भी था । वह दो पंक्तियां गाने के बाद ईश्वर की महिमा का ऐसा वर्णन करता कि सुनने वाले मुग्ध हो जाते ।
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सकटू चोर भी भटकता हुआ उस घर में आ गया जहाँ प्रागण में विशाल भीड़ के समक्ष गायक ने भगवन्नाम की स्वरलहरी छेड़ रखी थी ।
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सकटू का मस्तिष्क क्रियाशील हो गया । उसके विवेक में यह बात आ गई कि प्रांगण में जैसा रस बरस रहा था उसे सुनने के लिए निश्चय ही घर के सभी सदस्य वहीं उपस्थित होंगे थे और घर खाली पड़ा होगा ।
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ऐसा सुअवसर सबद भला क्यों गवांने वाला था ? वह तत्काल भवन के पिछवाड़े गया और रस्सी डालकर घर में प्रवेश कर गया ।
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उसका सोचना सही निकला । घर निर्जन था । सकटू चोर धन-दौलत छूने में जुट गया ।
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अंधकार होने की वजह से उसे कुछ नहीं मिल पा रहा था तो वह एक खिड़की को जरा खोलने के इरादे से खिड़की के पास पहुंचा । उसने खिड़की जरा खोली तो थमक गया ।
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अभी-अभी गायक ने रत्न-मणि-माणिक्य की चर्चा की थी । वह ध्यान से सुनने लगा ।
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”प्रात काल होने पर ग्वालबाल कृष्ण और बलदाऊ को खेलने के लिए बुलाने आ जाते हैं ।” गायक कह रहा था :
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”तब तक माता यशोदा अपने दोनों पुत्रों को नहला चुकी थीं । अब वे कृष्ण और बलराम को गहनों से सजा रही थीं । करोड़ों रुपए के गहने ।
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मुकुट में झिलमिलाते हीरे बाजूबद में दमकते हीरे गलहार में मणियां जिससे प्रकाश किरणें फूट रही थीं । कानों में स्वर्ण के बड़े-बड़े झिलमिलाते कुंडल ।
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कितने सुंदर लग रहे थे दोनों ! यह वृंदावन की सबसे मनोहर झांकी है । तत्पश्चात स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित कृष्ण-बलराम गौ चराने वन की तरफ चल पड़ते हैं ।”
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सकटू चोर ने जब यह सुना तो उसके दिमाग में खलबली मच गई । ‘मैं भी निरा मूरख हूं । थोड़े से धन-माल के लिए रातों को मारा-मारा फिरता हूं ।
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जबकि यह पंडित बता रहा है कि दो बच्चे अरबों के गहने पहनकर जगंल में गाय चराने जाते हैं ।
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इससे उनका पता पूछ लेता हूँ और जंगल में जा दबोचता हूं । बच्चे ही तो हैं । मेरा रूप देखकर ही भयभीत हो जाएंगे वरना एक-एक थप्पड़ जड़ दूंगा तो गहने उतारने ही पडेंगे ।’ सकटू सोच रहा था ।
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अब सकटू को उस घर से कोई मोह नहीं रहा और वह वहां से निकलकर वापस कार्यक्रम में आ बैठा ।
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अब उसे कार्यक्रम के समाप्त होने की प्रतीक्षा थी । अर्धरात्रि बीत जाने पर कार्यक्रम समाप्त हुआ तो प्रसाद वितरण हुआ ।
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सकटू ने भी प्रसाद लिया और बाहर गली में आ खड़ा हुआ । काफी देर पश्चात उसे वह गायक पंडित अकेला आता नजर आया । उसका चित्त प्रसन्न हो उठा ।
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पंडित उसके पास से गुजर गया तो सकटू उसके पीछे लग गया । एक निर्जन स्थान देखकर सकटू ने पंडित की बाह पकडू ली ।
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”तनिक ठहर जाओ पंडितजी महाराज!” सकटू बोला: ”लपके कहा जाते हो ? हम भी तो तुम्हारे पीछे हैं काम छोड़कर ।”
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”क…क…कौन हो तुम ?” पंडित जी भयभीत हो गए ।
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”मैं सकटू चोर हूं । नाम तो अवश्य ही सुना होगा ?”
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”ममुझसे क्या चाहते हो भाई ! मैं तो निर्धन ब्राह्मण हूं ।”
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”महाराज! आप अपनी मूर्खता से निर्धन हैं अन्यथा आपसे बड़ा धनवान कौन होता । आप तो ऐसे खजाने के बारे में जानते हैं जो करोडों से भी ज्यादा है ।”
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पंडित जी कुछ भी नहीं समझे । ”अब आप मुझे उन दोनों बालकों का पता बताइए महाराज! जो इतने रत्न जड़ित स्वर्ण आभूषण पहनकर गौ चराने वन में जाते हैं ।
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मैं उनसे गहने छीनकर लाऊंगा और निश्चय जानिए आपको भी मालामाल कर दूंगा ।”
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पंडित जी पहले तो अचकचाए फिर उसकी मूर्खता पर मन-ही-मन हंस पड़े ।
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”अच्छा वे बालक ! उनका पता जानना चाहते हो ? भाई, वे तो बड़ी दूर रहते हैं ।”
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“कोई बात नहीं । मैं चला जाऊंगा । आप बस मुझे उनका पता और उनके पास के धन-माल को सविस्तार बता दीजिए । उनके गहने कितने के होंगे ?”
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”उन गहनों का मूल्य कोई नहीं आक सकता । वे तो अनमोल हैं । उनके गहनों में एक कौस्तुभ मणि है जो अकेली संसार की समस्त सम्पदा के बराबर है ।”
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”अच्छा !” चोर के नेत्र आश्चर्य से फैले : ”इतनी बहुमूल्य मणि !”
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”हां भाई ! उस मणि जैसा रत्न तो पृथ्वी पर दूसरा है ही नहीं । वह मणि जहां होती है वहाँ अंधकार नहीं रह सकता ।”
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”महाराज ! अब मुझसे धैर्य नहीं हो रहा । मुझे जल्दी उन बालकों का पता और उनके नाम बताओ । नाम जानना भी आवश्यक है । नाम से ढूंढने में जरा सरलता भी रहेगी ।” सकटू व्यग्रता से बोला ।
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”नाम तो उनके कृष्ण और बलराम हैं ।”
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“किरशन और बल्लाराम !”
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”तुम निपट वजमूर्ख हो ! अच्छा ऐसा करो नंदलाल याद रखो । यह भी नहीं रख सकते तो सांवरिया याद रखी ।”
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”सांवरिया ! यह अच्छा है । रटता जाऊंगा । याद हो जाएगा । अब सुगम मार्ग बताओ जिससे जल्दी पहुंच सकुं ।”
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”वृंदावन चले जाओ । वन में कदम्ब का पेड़ ढूंढ लेना । सांवरिया वहीं बांसुरी बजाता है । हो सकता है तुम्हें मिल जाए ।”
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”मिलेगा कैसे नहीं ! अच्छा अब चलता हूँ । लौटकर आपका हिस्सा आपको अवश्य देकर जाऊंगा । प्रणाम पंडित जी !”
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”प्रणाम !” पंडित जी ने चैन की सांस ली । पीछा छूटा निपट मूर्ख से । अब भटकेगा वन-वन ‘सांवरिया-सांवरिया’ रटता हुआ ।
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सकटू वहां से चल दिया । मन-ही-मन वो ‘सांवरिया’ की रट लगाए हुए था । वह सीधा वृंदावन के मार्ग पर चल पड़ा । न उसे भूख सता रही थी और न ही प्यास लग रही थी ।
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वह नहीं चाहता था कि खाने-पीने के चक्कर में वह उस बालक का नाम भूल जाए ।
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इसी धुन में चलता हुआ गिरता-पड़ता सांवरिया रटता वह वृंदावन के मनोहारी वन में पहुंच गया ।
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उसे वन में प्रवेश करते ही कदम्ब का वृक्ष दिखाई पड़ गया तो उसकी समस्त थकान दूर हो गई । अब वह अपने लक्ष्य के बिल्कुल समीप जो था !
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चूंकि रात्रि थी इसलिए अब तो प्रात: काल में ही वे बालक गाय चराने आते । उसे सारी रात्रि प्रतीक्षा करनी ही होगी ।
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वह वहां पर ही बैठा-बैठा सांवरिया रटता रहा और भोर की प्रतीक्षा करने लगा । प्रात: हुई तो पूर्व दिशा से सूर्य की लालिमा पृथ्वी पर पड़ी ।
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बड़ा ही मनोहारी प्रकाश था । सकटू के हृदय में व्यग्रता घर किए थी वह कम-से-कम पचास बार पेड़ से कूदा और फिर चढ़ा । सूर्य देव गरमाने लगे थे । उसी अनुपात में सकट का हृदय भी व्याकुल हो रहा था ।
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सच बात तो यह है कि ईश्वर को पाने के लिए इसी व्याकुलता की जरूरत होती है । ईश्वर पूजा-पाठ करने से नहीं मिलते उपवास-दान करने से भी उन्हे पाना मुश्किल है ।
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उन्हें पाने के लिए तो बस उनके दर्शन की तीव्रतम् अभिलाषा मन में होनी चाहिए । भोले सकटू के मन में प्रभु-दर्शन की वह अभिलाषा उत्पन्न हो गई थी ।
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भाव के भूखे दीनानाथ को इससे क्या मतलब था वह कि कौन था क्या करता था उन्होंने तो सकटू के भाव को परखा और खुद उससे मिलने चल पड़े ।
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अंतत: उसे एक दिशा में दूर कहीं बांसुरी की स्वर लहरी सुनाई दी । वह वृक्ष से नीचे कूद आया । बांसुरी की आवाज प्रतिपल करीब आती जा रही थी ।
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उस स्वर लहरी में न जाने कैसा जादू था कि सबद को अपने मनो-मस्तिष्क लहराते प्रतीत हुए ।
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एक अद्भुत नशा उसके विवेक से टकरा रहा था । वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और वहीं मूर्च्छित हो गया ।
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जिस बांसुरी की धुन सुनकर कभी ब्रह्मा भी मोहित हो गए थे भला उस धुन से सकटू मदहोश क्यों नहीं हो जाता ।
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उसे चेत हुआ तो उछलकर खड़ा हुआ । अब उसे जगल में एक दिव्य प्रकाश फैला नजर आया । दूर धूल उड़ाती गाए नजर आईं ।
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व्याकुल होकर वह दौड़कर उधर लपका तो गायों से बहुत पीछे उसे उस मनोहर प्रकाश की छटा बिखेरते वे मुरली मनोहर दाऊ के साथ नजर आए ।
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”ओ सांवरिया ! तनिक ठहर तो लाला !” उसने उच्च स्वर में पुकारा ।
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दोनों बालक मुड़े तो सकटू सम्मोहित हो गया ।
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‘अहा कितने सुंदर मुख है इन बालकों के !’ उसका हृदय कह उठा : ‘आखों में ! कितनी सुलभता है ! इतने सुंदर और भोले बालक तो मैंने कहीं नहीं देखे ।
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कैसे निर्दयी माता-पिता हैं इनके जो ऐसे सुकुमार बालकों को वन में गाय चराने भेज देते हैं । ऐसी मनोहारी छवि ! इन्हें तो देखते रहने को जी चाहता है ।’
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‘मैं इनसे गहने कैसे छीनूंगा । मेरा तो हृदय ही फट जाएगा परंतु मैं इतनी दूर आया हूं गहने तो छीनूंगा ।
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पंडित से कौल करके आया है मैं तो चोर हूं मुझे इनसे मोह क्यों हो रहा है ? मुझे तो गहने लेने हैं ।’
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”अरे लाला भागे कहां जा रहे हो ? मैं कितनी मुसीबत भुगतकर यहां आया हूं, कुछ पता है ?
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सकटू चोर है मेरा नाम । सुना ही होगा । अब अपने सब गहने उतारो और चुपचाप घर चले जाओ ।” सकटू ने घुड़ककर कहा ।
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”हम अपने गहने तुम्हें क्यों दें ?” सांवला बालक मंद मुस्कान से बोला ।
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”देते हो या कसकर थप्पड़ जमाऊं” चोर ने आखें निकालीं ।
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”नहीं देंगे ।”
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”अच्छा ! तो मुझे तुम दोनों की पीठ तोड़नी पड़ेगी ”
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”अरे बाप रे ! कोई बचाओ । बाबा अरे ओ बाबा ! बचाओ !”
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चोर ने झपटकर सांवरिया का मुंह दबा लिया । जैसे बिजली चमक उठी । उस स्पर्श ने सकटू के अंतर तक बिजली कौंधा दी । वह जैसे पाषाण में बदल गया ।
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अंतर में अभी भी कहीं तार झंकृत हो रहे थे । और सबद चोर को जाने क्या हुआ वह रो पड़ा ।
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”अरे तुम कौन हो ? क्यों तुम्हारे स्पर्श से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं बहुत हल्का हो गया हूं ?
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मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं किसी अलौकिक आनंद के सागर में डूब रहा हूं । तुम्हारी मुग्ध करने वाली छवि मुझे मेरे उद्देश्य से भटका रही है । तुम निश्चय ही नर रूप में कोई देव हो ।”
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”अरे नहीं बाबा !” सांवरिया ने कहा : ” हम तो साधारण बालक हैं । हम तो नंदराम के बेटे हैं ।”
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”जो भी हो । अब तुम जाओ । अब मैं तुम्हारे गहने नहीं लूगा । अब मेरे हृदय में कोई कामना नहीं रही ।
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बस तुम एक बार अपनी छोटी सुदर हथेलियों को चूम लेने दो । मैं पूर्ण तृप्त हो जाऊंगा ।
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अब मैं कहीं जाने वाला नहीं । यहीं इसी वृक्ष के नीचे रहूँगा ताकि प्रतिदिन तुम्हारी सलोनी सूरत निहार सकूं।
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तुम प्रतिदिन कुछ पल के लिए मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ करते रहना । जिस दिन तुमने दर्शन नहीं दिए मैं उसी दिन व्याकुल होकर प्राण त्याग दूंगा ।”
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”और यदि हम तुम्हें अपने गहने दे दें तब ?”
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”गहने ! गहनों का अब मैं क्या करूगा । नहीं मुझे तुम्हारे दर्शनों के अलावा किसी सुख की कामना नहीं है ।”
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”फिर उस पंडित को क्या मुह दिखाओगे जिससे कहकर आए हो कि तुम निश्चय ही उसे मालामाल कर दोगे ?”
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”अरे वाह! तुम्हें कैसे मालूम ?” चोर चकित हो गया ।
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”हमें सब मालूम है । लो ये गहने ले जाओ अन्यथा वह पंडित तुम्हारी हंसी उड़ाएगा कि तुम दो छोटे बालकों से गहने न ला सके ।”
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”बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु तुम्हारे माता-पिता तुम पर गहनों के लिए क्रोधित नहीं होगे ?”
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”नहीं होंगे । हमारे पास बहुत गहने हैं । तुम फिर आना । हम तुम्हें और भी गहने देंगे ।” श्रीकृष्ण ने अपने गहने उतारे ।
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”फिर मैं ऐसा करता हूँ कि तुम्हारे गहने ले जाकर उस पंडित को दिखाता हूं । फिर आकर तुम्हारे गहने लौटा दूंगा । इस तरह मेरी भी बात रह जाएगी और तुम्हारे गहने भी तुम्हें मिल जाएंगे ।
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मैं तो बस तुम्हारी मनमोहिनी छवि देखकर ही जीवित रह सकता हूं । इन गहनों से मेरा जीवन नहीं चलेगा ।”
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”ठीक है । जैसा तुम्हें उचित लगे ।” श्रीकृष्ण ने कहा और दोनों ने अपने गहने उतारकर पोटली में बाँधकर उसे दे दिए ।
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सकटू वहां से चल दिया इस उत्कठा में कि उसे शीघ्र वापस भी आना है बिना कहीं विश्राम किए उस पंडित के पास पहुचा ।
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”महाराज !” वह पंडित से बोला: ”आप बड़े निर्दयी हैं । ऐसे सुकुमार बालकों के गहने लूटने भेज दिया ।
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अरे मेरा हृदय उन्हें देखते ही बदल गया । कैसी मनोहारी छवि थी उनकी ! मैं तो उनका दास बन गया ! कितने दयालु भी हैं ! मैं नहीं चाहता था फिर भी अपने गहने मुझे दे दिए ।
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यह देखिए कितने सारे गहने हैं । यह रही वह अनमोल कौस्तुभ मणि ! यह रहा रत्नजडित बाजूबंद । देख-भर लो दूंगा नहीं । वापस करने का वचन दे आया हूं ।”
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पंडित तो खुली पोटली से जगमगाते रत्न आभूषण को देखकर ही चक्कर खा गया । यह कैसा चमत्कार था !
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वह शठ पापी चोर कैसे उस दिव्य मूर्ति के दर्शन पा सका जिसके लिए बड़े-बड़े साधु योगी जगत को त्यागकर दिन-रात उसी की लौ में रमे रहते हैं ?
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”यह सब कहा से ले आया तू ?” पंडित जी ने पूछा ।
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”कहाँ से ? अरे यह उन्हीं बालकों के गहने हैं जिनका पता तुमने मुझे बताया था । यह उसी सांवरिया के गहने हैं !”
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”तेरी लीला अपरम्पार है गिरधारी !” पंडित जी के मुख से निकला :
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”मैंने जीवन-भर तेरी स्तुति की । रात-रात भर जागकर तेरा गुणगान किया और तूने इस वजमूर्ख पापी चोर को जो अपने कर्मों से सज्जनों को त्रास देता है अपने गहने तक दे डाले ?
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वाह रे छलिया मेरी धूपबत्ती भी तुझे न सुहाई और इस दुष्ट की राहजनी पर प्रसन्न हो गया !”
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”अब चलता हूं पंडित जी ! सुबह तक पहुंचना है । उनके गहने वापस करने हैं मुझे तो अब वहीं बसेरा करना है और उन मनोहर बालकों के प्रतिदिन दर्शन करूंगा ।”
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”अच्छा! मुझे तो तेरी बात पर विश्वास नहीं है । क्या तू मुझे उनसे मिला सकता है ?” पंडित जी ने कहा ।
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”क्यों नहीं । चलो मेरे साथ । पर दूर बहुत है पंडित जी ! मार्ग भी बहुत कठिन है । सुबह तक पहुंचना है । कहीं भी रुकना नहीं है ।
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सोच लीजिए परंतु लाला सांवरिया से विनती करके तुम्हें कुछ गहने अवश्य दिलवा दूंगा ।”
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पंडित जी तत्काल उसके साथ चल पड़े । रास्ता बड़ा कठिन था । सकटू तो जाने किस धुन में चला जा रहा था मगर पंडित जी की तो पिंडलियां दुखने लगी थीं ।
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जी चाह रहा था कि वहीं सो जाएं परंतु एक सुअवसर उसे मिलता प्रतीत हो रहा था जिसे वह किसी भी मूल्य पर गवाना नहीं चाहता था ।
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रात्रि-भर की यात्रा के पश्चात भोर का प्रकाश फैला तो सकटू हर्षित स्वर में नाचने लगा ।
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”पंडित जी ! यही है वो स्थान जहां वे दोनों मुझे मिले । अब थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी होगी । वे गाएं लेकर आते होंगे ।
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आप एक काम कीजिए पेड़ पर चढ़ जाए । नए आदमी को देखकर बच्चे डर सकते हैं ।”
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पंडित जी उस कदम्ब के पेड़ पर चढ़ गए । थोड़ा समय बीता ।
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”पंडित जी ! वो आ गया । उसकी बांसुरी की मधुर धुन सुन रहे हो न ?” सकटू प्रसन्नता से चीखा : ”वह आ रहा है । अब थोड़ी ही देर लगेगी ।”
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”मुझे तो कोई बांसुरी नहीं सुनाई पड़ रही ।” पंडित व्यग्र हो उठा ।
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”वह अभी आया जाता है । आपके कानों में कोई विकार लगता है ।” तब तक भक्तवत्सल भगवान कृष्ण और बलराम उसके समीप आ गए । दोनों ही बड़ी मंद-मंद मुस्कान से हंस रहे थे ।
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”आओ लाला । यह लो अपने गहने । गिन लो । मैंने पंडित जी को एक भी नहीं दिया । पहन लो अपने गहने परतु एक बात बताओ मेरे साथ पंडित आए हैं उन्हें आपकी बांसुरी की आवाज क्यों नहीं सुनाई दी ?”
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करुणानिधि ने मुस्कराकर पेड़ पर छिपे पंडित को देखा । ”पंडित जी नीचे आओ । देख लो सांवरिया को और गहने मांग लो ।”
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पंडित जी नीचे तो उतरे परतु कुछ दिखाई तो दे ही न रहा था !
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”यहां तो कोई नहीं है?” वह बोले ।
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”ऐं आपकी आखों में भी कुछ हो गया ? सामने खड़े बालक नजर नहीं आ रहे ?
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लाला ! ” सकटू भगवान से पूछ बैठा: ”यह क्या रहस्य हैं ! पंडित जी को न सुनाई देता है न दिखाई देता है । यह मुझे झूठा कह रहे हैं ।
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लाला ! ऐसा मत करो । गहने मत देना परंतु पंडित जी को अच्छा कर दो ।”
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”अच्छी बात है ! तुम मुझे और इन्हें एक साथ स्पर्श करो ।” कृष्ण ने कहा ।
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सकटू ने ऐसा ही किया तो पंडित जी के दिव्य चक्षु खुल गए । और वह प्रेम विह्वल होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े ।
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सकटू चोर निरंतर अपने ईष्ट की मोहक छवि निहार रहा था । आस्था और श्रद्धा के साथ लगन हो तो परमपिता परमात्मा व्यक्ति के निश्छल प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं । यह सकटू चोर की निष्कपट लगन से सिद्ध हो गया ।