बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

ज्ञान और भक्ति /gyan aur bhakti bhag 2




भावार्थ:-हे सुचतुर गरुड़ जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्रीराम जी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है॥116 ()
चौपाई :
* सुनहु तात यह अकथ कहानी।समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।चेतन अमल सहज सुख रासी॥1
भावार्थ:-हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए।यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥1
* सो माया बस भयउ गोसाईं।बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई।जदपि मृषा छूटत कठिनाई॥2
भावार्थ:-हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई ।यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥2
* तब ते जीव भयउ संसारी।छूटन ग्रंथिन होइ सुखारी॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई।छूटन अधिक अधिक अरुझाई॥3
भावार्थ:-तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है।वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बतलाए हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरन अधिकाधिक उलझती ही जाती है॥3
* जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी।ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥
अस संजोग ईस जब करई ।तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥4
भावार्थ:-जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है, इस से गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे ? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है ) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित्ही वह (ग्रंथि) छूट पाती है॥4
* सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।जौं हरिकृपाँ हृदयँ बस आई॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा ।जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥5
भावार्थ:-श्रीहरि की कृपा से यदि सात्विकी श्रद्धारूपी सुंदर गो हृदयरूपी घर में आकर बस जाए, असंख्य जप, तप व्रत यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार  (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,5
* तेइ तृन हरित चरै जब गाई।भाव बच्छ सिसुपाइ पेन्हाई॥
 
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।निर्मल मन अहीर निज दासा॥6
भावार्थ:-उन्हीं (धर्मा चार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गोचरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे।निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी ) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है , निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6
* परम धर्ममय पय दुहि भाई।अवटै अनल अकाम बनाई॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।धृति सम जावनु देइ जमावै॥7
भावार्थ:-हे भाई, इस प्रकार (धर्मा चार में प्रवृत्त सात्वि की श्रद्धारूपी गो से भाव, निवृत्ति और वश में किए हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्म मय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भली-भाँति औटावें।फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंडा करें और धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावें॥7
* मुदिताँ मथै बिचार मथानी।दम अधार रजु सत्य सुबानी॥
तब मथि काढ़ि लेइ न वनीता।बिमल बिराग सुभग सु पुनीता॥8
भावार्थ:-तब मुदिता  (प्रसन्नता)  रूपी कमोरी में तत्व विचार रूपी मथानी से दम (इंद्रिय दमन) के आधार पर (दम रूपी खंभे आदि के सहारे) सत्य और सुंदर वाणी रूपी रस्सी लगाकर उसे मथें और मथ कर तब उसमें से निर्मल, सुंदर और अत्यंत पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकाल लें॥8
दोहा :
* जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरा वैग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥117 क॥
भावार्थ:-तब योग रूपी अग्नि प्रकट कर के उस में समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योगरूपी अग्नि में भस्म कर दें)।जब (वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपीमल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञानरूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें॥117 ()