* ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपानिकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुखमाना।सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥
सुनि उरगारि बचन सुखमाना।सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥
भावार्थ:-हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काक भुशुण्डिजी ने सुखमाना और आदर के साथ कहा-॥6॥
* भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर।सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥7॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर।सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥7॥
भावार्थ:-भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षी श्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए॥7॥
* ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥8॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥8॥
भावार्थ:-हे हरिवाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब पुरुष हैं।पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है।अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है॥8॥
दोहा :
* पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मतिधीर।
नतु कामी बिषया बस बिमुख जो पद रघुबीर॥115 क॥
नतु कामी बिषया बस बिमुख जो पद रघुबीर॥115 क॥
भावार्थ:-परंतु जो वैराग्यवान् और धीर बुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और श्रीरघुवीर के चरणों से विमुख हैं ॥115 (क)॥
सोरठा :
* सोउ मुनि ग्यान निधान मृग नयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115 ख॥
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115 ख॥
भावार्थ:-वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं।हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान विष्णुकी माया ही स्त्री रूप से प्रकट है॥115 (ख)॥
चौपाई :
* इहाँ न पच्छ पात कछु राखउँ।बेद पुरान संत मत भाषउँ॥
मोहन नारि नारि कें रूपा।पन्नगारि यह रीति अनूपा॥1॥
मोहन नारि नारि कें रूपा।पन्नगारि यह रीति अनूपा॥1॥
भावार्थ:-यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती ॥1॥
* माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ।नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥2॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥2॥
भावार्थ:-आप सुनिए, माया और भक्ति- ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं। फिर श्रीरघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चयही नाचने वाली (नटिनी मात्र) है॥2॥
* भगतिहि सानु कूल रघुराया।ताते तेहि डरपति अतिमाया॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी।बसइ जासु उर सदा अबाधी॥3॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी।बसइ जासु उर सदा अबाधी॥3॥
भावार्थ:-श्रीरघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत डरती रहती है।जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधि रहित (विशुद्ध) राम भक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है,॥3॥
* तेहि बिलोकि माया सकुचाई।करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥4॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥4॥
भावार्थ:-उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सबसुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं॥4॥
दोहा :
* यह रहस्य रघुनाथ कर बेगिन जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोहन होइ॥116 क॥
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोहन होइ॥116 क॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथ जी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्रीरघुनाथ जी की कृपा से जोइ से जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोहन हींहोता॥116 (क)॥