पाप का गुरु कौन ?
( एक प्रेरणास्पद कथा )
किसी समय काशी शिक्षा की नगरी कही जाती थी । लम्बे समय से यह परम्परा रही है कि प्रत्येक बालक जो ब्राह्मण के घर में जन्म लेता था, उसे काशी जाकर वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करना होता था । तभी वह कर्मकाण्ड आदि पुरोहिताई के कार्य करने के योग्य होता था ।
एक बार की बात है, एक पंडितजी ने अपने बेटे को भी शास्त्रों का अध्ययन के लिए काशी भेजा । सभी शास्त्रों का सांगोपांग अध्ययन करने के बाद बालक अपने गाँव लौटा । अपने शिक्षित बालक के आने की ख़ुशी में पंडितजी ने एक भव्य उत्सव का आयोजन करवाया, जिसमें ज्ञान चर्चा का विषय भी रखा गया । उसमें नये पंडितजी को शास्त्रोक्त तरीके से ग्रामवासियों की समस्याओं का समाधान करना था । सभी लोगों ने तरह - तरह के प्रश्न पूछे - लगभग सभी प्रश्नों के जवाब नये पंडितजी ने शास्त्रीय व्याख्याओं से दिए । गाँव वाले बहुत प्रभावित हो हुए ।
इतने में एक बूढा किसान सामने आया और उसने पूछा - " पाप का गुरु कौन ?"
पंडितजी ने अपने विवेक पर जोर दिया परन्तु इसका उत्तर नहीं मिला । अंत में पंडित जी को लगा कि अभी उनका ज्ञान अधुरा है, वह वही से वापस काशी को रवाना हो गये । काशी जाकर उन्होंने अपने सभी गुरुओं से पूछा लेकिन इस प्रश्न का जवाब उन्हें कहीं से नहीं मिला ।
हताश और निराश होकर इस बार पंडित जी अपने अंतिम गुरु के पास गये तो उन्होंने कहा - " वत्स !इसका जवाब तुझे एक पापी ही दे सकता है !
पंडित जी की आँखे आशा से चमक उठी । उन्हें लग रहा था कि अब उनको इस प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा । उन्होंने तुरंत पूछा - " ऐसा पापी कौन है और कहाँ मिलेगा ?"
गुरुदेव बोले - " मैं तो किसी पापी को नहीं जानता लेकिन एक वैश्या है जिसने सैकड़ों लोगों को पापी बनाया है । वह तुम्हारे इस प्रश्न का जवाब दे सकती है ।"
पंडितजी बिना कोई देर किये वैश्या के घर की ओर रवाना हुए । पंडित जी को आता देख वैश्या ने स्वागत में व्यंग करते हुए कहा - ज्ञान के साधक आज अज्ञान की सेवा में कैसे ?
पंडित जी ने स्वाभिमानपूर्वक कहा - " हे देवी ! मुझे सेवा की कोई आवश्यकता नहीं, केवल अपने एक प्रश्न का उत्तर चाहिए और उसका उत्तर केवल तुम दे सकती हो इसलिए तुम्हारे पास आना पड़ा ।"
मुस्कुराते हुए वैश्या बोली - " पूछिये महाशय ! ऐसा कौनसा प्रश्न है, जिसका जवाब केवल मैं ही दे सकती हूँ !
पंडितजी बोले - " मैं जानना चाहता हूँ कि पाप का गुरु कौन है ?"
वैश्या ठहाका लगाकर हंसी और फिर गंभीर होकर बोली - " महाशय ! इसके लिए आपको कुछ दिन यहाँ रहना पड़ेगा ।" अब पंडितजी इस प्रश्न के उत्तर में पहले ही काफी भटक चुके थे, इसलिए उन्होंने वैश्या की बात मानकर वहाँ रहना स्वीकार कर लिया । लेकिन पंडित जी बोले - " हे देवी ! मैं यहाँ रह तो लूँगा लेकिन खाना - पानी अपने खुद के हाथ का बनाया ही लूँगा ।"
वैश्या बोली - " जी अवश्य !"
इस तरह चार दिन बीत गये । प्रतिदिन पंडितजी खाना बनाते और अपनी पेट पूजा करते थे । आखिर परेशान होकर पंडितजी ने वैश्या से पूछ ही लिया – “हे देवी ! मुझे मेरे प्रश्न का जवाब कब मिलेगा ?”
वैश्या बोली – “थोड़ा धैर्य धारण कीजिये , महोदय ! बस एक दिन की ओर बात है ।” उसी दिन पंडितजी का खाने पीने का सामान भी खत्म हो गया । वैश्या का ठिकाना गाँव से काफी दूर था । भयंकर गर्मी और चिलचिलाती धुप देखकर पंडितजी ने सोचा शाम को बाजार जाकर सामान लाऊंगा । सुबह से भूखे पंडितजी अपनी पोथियों के पन्ने पलट रहे थे । तभी अचानक वैश्या का आगमन हुआ ।
वैश्या बोली - " पंडितजी आप अकेले खाना बनाते है कितने परेशान हो जाते है, एक काम कीजिये, कल से नहा - धोकर आपके लिए खाना मैं ही बना दिया करूंगी । इससे मुझे भी आपकी सेवा का कुछ पूण्य मिल जायेगा और भोजन के साथ दक्षिणा में मैं आपको एक सोने की मुहर दूंगी ।
पहले तो पंडितजी ने आनाकानी की किन्तु मुफ्त का खाना और साथ में सोने की मुहर का विचार कर पंडितजी ने वैश्या का प्रस्ताव मान लिया । उसी दिन शाम को वैश्या ने तरह - तरह के पकवान बनाये और पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुई । भोजन का थाल पंडितजी के सामने परोसा गया लेकिन जैसे ही पंडितजी ने खाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, वैश्या ने थाल पीछे खिंच लिया ।
वैश्या के इस व्यवहार से पंडित जी क्रौधित हो गये और तिलमिलाकर बोले - " ये क्या हास्य है ?"
वैश्या ने विनम्रता पूर्वक कहा - " श्रीमान ! यही आपके प्रश्न का उत्तर है ।"
पंडित जी - " मैं कुछ समझा नहीं ! "
वैश्या ने समझाते हुए कहा " महाशय ! क्या केवल स्नान कर लेने मात्र से कोई पवित्र हो जाता है, क्या मेरी अपवित्रता केवल इतनी ही है जो केवल स्नान करके मिटाई जा सकती है ? नहीं ! लेकिन मुफ्त के भोजन और स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आप अपने वर्षों के नियम को क्षणभर में नष्ट करने के लिए तैयार हो गये । यह " लालच " ही पाप का गुरु है श्रीमान !"
पंडितजी को अपना जवाब मिल चूका था ।
शिक्षा – यदि गहनता से अन्वेषण किया जाये तो सभी विकारों का मूल " लालच " को कहा जा सकता है क्योंकि इस एक विकार से अनेक विकार उत्पन्न होते है ! मनोविकार पांच है --- काम, क्रोध, मद , लोभ एवं मोह ! पवित्र गीता के अनुसार -- वासना , लालच एवं क्रोध नरक के द्वार है ! अतः लालच जैसी तामसिक प्रवृति को त्याग देना चाहिए ! दान एक देविक प्रवृति है उसका वरन करो और अपने प्रारब्ध में ( भाग्य में ) सुख एवं समृद्धि को पोषित करे !
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गुण ,,,,,,,,
सम्राट चंद्रगुप्त ने एक बार चाणक्य से कहा, चाणक्य, काश तुम खूबसूरत होते?
चाणक्य ने कहा, 'राजन, इंसान की पहचान उसके गुणों से होती है, रूप से नहीं।'
तब चंद्रगुप्त ने पूछा, 'क्या कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हो जहां गुण के सामने रूप छोटा रह गया हो।'
तब चाणक्य ने राजा को दो गिलास पानी पीने को दिया।
फिर चाणक्य ने कहा, 'पहले गिलास का पानी सोने के घड़े का था और दूसरे गिलास का पानी मिट्टी के घड़े का, आपको कौन सा पानी अच्छा लगा।'
चंद्रगुप्त बोले, 'मटकी से भरे गिलास का।'
नजदीक ही सम्राट चंद्रगुप्त की पत्नी मौजूद थीं, वह इस उदाहरण से काफी प्रभावित हुई।
उन्होंने कहा, 'वो सोने का घड़ा किस काम का जो प्यास न बुझा सके।
मटकी भले ही कितनी कुरुप हो, लेकिन प्यास मटकी के पानी से ही बुझती है, यानी रूप नहीं गुण महान होता है।'
इसी तरह इंसान अपने रूप के कारण नहीं बल्कि अपने गुणों के कारण पूजा जाता है।
रूप तो आज है, कल नहीं लेकिन गुण जब तक जीवन है तब तक जिंदा रहते हैं, और मरने के बाद भी जीवंत रहते हैं।
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आध्यात्मिक जीवन ,,,,,,
आत्मा के कल्याण की अनेक साधनायें हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है और उनके परिणाम भी अलग-अलग हैं।
‘स्वाध्याय’ से ,,,,सन्मार्ग,,,,,, की जानकारी होती है।
‘सत्संग’ से ,,,,,,स्वभाव और संस्कार,,,,, बनते हैं। कथा सुनने से सद्भावनाएँ जाग्रत होती हैं।
‘तीर्थयात्रा’ से ,,,,,,,भावांकुर,,,,,, पुष्ट होते हैं।
‘कीर्तन’ से ,,,,,,,तन्मयता,,,,,, का अभ्यास होता है।
दान-पुण्य से ,,,,,,सुख-सौभाग्यों,,,,,, की वृद्धि होती है।
‘पूजा-अर्चना से ,,,,,,आस्तिकता,,,,,,, बढ़ती है।
@इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच-समझकर प्रचलित किये हैं। पर ,,,,,,,,,,,,,,,,‘तप’ (परिश्रम ),,,,,,,,,,,,, का महत्त्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्नि में पड़कर ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल पैदा होता है, जिसके द्वारा सांसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल होती हैं। तप की सामर्थ्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए तप साधन को सबसे शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से तेज प्रकाश बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।
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" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
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जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनेक दिव्य सिद्धियों एवं निधियों का अधिकारी नहीं बन सकता है !
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"जब तक मन में खोट और दिल में पाप है, तब तक बेकार सारे मन्त्र और जाप है !"
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ... .।, बहुत ही कठिन है डगर पनघट की।.....।