गाय को निर्दयता से मारने वाला कलि के अलावा कोई और नहीं हो सकता, राजा परीक्षित यह समझ गए थे। वह समझ गए थे कि कलियुग आने वाला है। परीक्षित ने कलि को दण्ड देना चाहा, लेकिन कलि ने क्षमा मांगते हुए राजा के चरण पकड़ लिए। बस, कलि के चरण छूते ही राजा परीक्षित का धर्मात्मा मन मलिन हो गया, बुद्धि भ्रष्ट हो गई।
ध्यान रखें, जो अनजान है, जिसके बारे में कुछ पता नहीं कि वह कैसा है, उसका कभी स्पर्श नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसे ऐसा व्यक्ति स्पर्श कर ले, उसके कीटाणु दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाते हैं और पुण्यात्मा अपवित्र हो जाती है। परीक्षित के साथ भी ऐसा ही हुआ।
अनीति से, गलत तरीके से, अर्थात परिश्रम के बिना कमाए हुए धन का प्रभाव मन और बुद्धि पर उसी के अनुरूप ही पड़ता है। मेहनत से कमाए धन से एक अव्यक्त-सी संतुष्टि होती है, लेकिन बिना मेहनत कमाए हुए धन से मन में विकार पैदा होते हैं, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। आदमी बुरे व्यसनों में लग जाता है और ऐसे धन से मति भ्रष्ट हो जाती है। आदमी फिर संभल नहीं पाता, गिरता ही जाता है। राजा परीक्षित ने देखा कि उसके भंडार में पड़ी पेटियों में एक मुकुट उसके दादा भीम ने रखा हुआ था। यह मुकट जरासंध के वध के बाद भीम साथ ले आए थे और जरासंध ने अनेक राजाओं की हत्याएं की थीं। उनकी राजधानियों पर कब्जा किया था और उनका धन लूटकर अपने खजाने भरे थे। ऐसे लूटे हुए धन से, किसी को दुख देकर इकट्ठे किए
हीरे-जवाहरात से ही उसने अपने लिए एक भव्य मुकुट तैयार किया था और वही मुकुट भीम साथ ले आए थे... लेकिन उन्होंने उसे पहना नहीं था।
लेकिन परीक्षित ने यह मुकुट पहन लिया। चूंकि कलि ने राजा परीक्षित के चरण छू लिए थे, इसलिए परीक्षित की मति भ्रष्ट हो गई थी और वह मुकुट पहनकर शिकार के लिए भी चले गए। वैसे वह कभी शिकार करने नहीं गए थे, लेकिन अनजान व्यक्ति द्वारा चरण स्पर्श करने और अनीति के धन से बने मुकुट को पहन लेने से, वह शिकार को निकल पड़े। बहुत घूमे। अनेक जीवों को मारा, उनके शवों को अपने रथों में लादा, खून बहाया, मासूमों की हत्याएं कीं... अंत में परीक्षित थक गए... प्यास लगी... कहीं पानी नहीं मिला। ऋषि शमीक की कुटिया में गए। शमीक समाधिस्थ थे। उन्हें नहीं पता था, कौन आया है। जब कोई संत तपस्या में हो, तो उसे केवल मन ही मन प्रणाम ही करना चाहिए, उसकी तपस्या भंग नहीं करनी चाहिए।
परीक्षित के कुटिया में आने पर भी जब ऋषि ध्यानमग्न ही रहे तो परीक्षित के मन में अभिमान जागा, इसलिए कि कलि ने उनके चरण छू लिए थे, अनजान और गलत व्यक्ति के संस्कार उनमें प्रविष्ट हो गए थे। गलत ढंग से कमाए धन से बना मुकुट उन्होंने पहन रखा था। वह राजा भी थे... इन सबके कारण, उनमें अहं जागा, ' मैं ' जागी, मैं राजा हूं, यह सारा प्रदेश मेरा है और मेरे ही आने पर, यह ऋषि आंखें नहीं खोल रहा... मेरा स्वागत नहीं कर रहा... मुझे पानी नहीं पिला रहा। जब बुद्धि मलिन हो जाती है तो व्यक्ति अच्छे और बुरे में अंतर नहीं कर पाता, तब बुरा ही होता है।
परीक्षित धर्मात्मा होने के बावजूद अच्छा नहीं कर सका... उसने इधर-उधर देखा। एक मरे हुए सांप पर नजर पड़ी... तीर से उठाया और ऋषि के गले में डाल दिया। उसने एक तपस्वी का अपमान कर दिया। बस, यहीं से परीक्षित की दुनिया बदल गई... धर्म के विरुद्ध आचरण करने से, परीक्षित की स्थितियां ही बदल गईं, एक शक्तिशाली राजा के गौरव से वह नीचे गिर गया... दूसरों का अपमान करने वाला स्वयं भी अपमानित होता है, दूसरों को दुख देने वाला स्वयं दुखी होता है। दूसरों
के लिए गड्ढा खोदने वाला उसमें पहले स्वयं ही गिरता है। दूसरों को छलने वाला, खुद ही छला जाता है, यह प्रकृति का नियम है।
परीक्षित भी स्वयं छला गया। परीक्षित भी स्वयं दुखी हुआ... अपमानित हुआ... ऋषि के गले में मरा हुआ सांप डालने से, परीक्षित ने एक प्रकार से जीवित सांप ही अपने गले में डाल लिया। याद रखें, सर्प साक्षात काल है। समस्त इंद्रियों को अंतर्मुख करके भगवान में लीन हुआ व्यक्ति, ऋषि शमीक ही है... राजा रजोगुणों का, विलासिता का प्रतीक है... और ऐसा व्यक्ति कभी धार्मिक कार्य नहीं कर सकता।
और जब ऋषि पुत्र श्रृंगी को राजा के कृत्य का पता चला तो उसने राजा को सातवें दिन तक्षक नाग से डसने का शाप दे दिया। परीक्षित ने सुना तो हैरान हुआ। उसने आत्म मंथन किया कि मैंने कौन-सा अपराध किया था ? और फिर उसने मुकुट उतारा। मुकुट उतारते ही उसकी बुद्धि लौटी, विवेक जागा और तत्काल एहसास हुआ... इस मुकुट के पहनने से ही उससे धर्म के विरुद्ध आचरण हुआ... ऋषि का अपमान किया। अनीति से, कमाए धन से बने मुकुट के कारण ही, कलि के, अर्थात अनजान व्यक्ति के चरण छूने से ही मेरी मति भ्रष्ट हुई, मैंने गलत कार्य किया। और सातवें दिन तक्षक नाग ने डस ही लिया... जब मति भ्रष्ट हो जाती है तो कालरूपी सर्प डसता ही है।