**स्वभाव**
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एक बिच्छू नदी के कगार पर बिल बनाकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था। बिच्छू को जब भूख लगती, बिल से बाहर आ जाता और रेत पर घूमकर छोटे−छोटे कीड़े−मकोड़ों का उदरस्थ कर अपनी क्षुधा शान्त करता।
कभी−कभी उसे केकड़े के दर्शन भी हो जाते। जो रहता तो जल में था पर धूप लेने के लिए किनारे पर भी आ जाता और रेत में घण्टों पड़ा रहता। उसने रेत में भी अपने निवास की अस्थाई व्यवस्था कर रखी थी। एक छोटा बिल बना लिया था जब उसे कौवे, बगुले या अन्य किसी शत्रु के आगमन का संकेत मिलता तो अपनी सुरक्षार्थ वह उस बिल में छिप जाता था।
केकड़े और बिच्छू में आकृति की समानता थी। प्रारम्भ में तो बिच्छू केकड़े से बिलकुल न बोला, चुपचाप उसके क्रिया−कलाप देखता रहता कि वह किसी तरह पानी में कूद कर क्रीड़ा करता रहता है और जल विहार का आनन्द लेता है।
एक दिन बिच्छू से न रहा गया उसने अपनी इच्छा को प्रकट करते हुए केकडे कहा—"मित्र! आपको जल−क्रीड़ा करते देखता हूँ तो मेरे मन में भी आता है कि मैं भी सरिता में कूदकर स्नान करूं।"
"आप भूल कर भी ऐसा मत करना"—बिच्छू के केकड़े को सचेत हुए कहा—"देखते नहीं नदी का प्रवाह कितना तीव्र है कहीं जलधारा आपको भँवर की ओर बहाकर ले गई तो तैरने की इच्छा अपूर्ण रह जायेगी और विवश होकर जल समाधि लेनी पड़ेगी। कहीं−कहीं पर तो नदी की गहराई इतनी अधिक है कि थाह लेना भी मुश्किल पड़ता है।"
बिच्छू बोला— "मुझे तैरना नहीं आता इसलिए जान−बूझकर मैं मृत्यु को आमन्त्रित तो नहीं करना चाहता, पर क्या आप मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर नदी की धारा की सैर नहीं करा सकते। जब कभी सरिता के मध्य में नौका−विहार करते हुए यात्रियों को देखता हूँ तो मेरा मन हर्षोल्लास से नाच उठता है, सोचता हूँ उन्हें कितना आनन्द मिल रहा होगा।"
केकडा बोला- "सैर कराना तो कोई मुश्किल कार्य नहीं है पर आपकी पूँछ का डंक कितना विषैला होता है इसे कौन नहीं जानता। यात्रा के मध्य कहीं आपने अपना डंक चला दिया तो मेरा जीवन समाप्त हो जायेगा।"
बिच्छू ने आश्वासन देते हुए कहा- "आपका ही जीवन समाप्त क्यों होगा? मेरा बचना भी तो कठिन हो जायेगा। मैं इतना मूर्ख नहीं कि अपना हित−अनहित भी न जानता होऊँ। तुम्हें डंक मारने पर मुझे भी तो जल में डूबना पड़ेगा। अतः मेरे डंक का भय तुम न करो।"
केकड़े को विश्वास हो गया। उसने बिच्छू को अपनी पीठ पर बिठाया और उतर पड़ा नदी में हवाखोरी करने के लिए। नदी की लहरों पर केकड़ा तैर रहा था। उसे जल−क्रीड़ा में बड़ा आनन्द आ रहा था। ऊपर बैठे बिच्छू को ऐसा लग रहा था मानो झूला झूल रहा हो। मंद−मंद प्रवाहित होती शीतल वायु उसे बड़ी भली लग रही थी और अपने चहुँओर अपार जल समूह को देखकर उसे ऐसा आनन्द आ रहा था मानो छोटी किश्ती में बैठक अवकाश के क्षणों में अपने व्यथित हृदय को शान्ति और नवीनता प्रदान करने के लिए निकल पड़ा हो।
बिच्छू अपने आनन्द में भूल ही गया कि केकड़े पीठ पर बैठा है। तब तक एक बड़ी लहर का प्रवाह आया। हल्की−सी फुहार उसकी पीठ पर गिरी। घबराहट में बिच्छू का डंक पूरे वेग से केकड़े की पीठ पर गिरा। केकड़ा तिलमिला गया। उसके पूरे शरीर में विष फैल गया। असह्य पीड़ा ने उसे बेचैन कर दिया।
मरते−मरते उसने—"आखिर जिरा बात के लिए मैं डर रहा था वही हुआ न?"
पश्चाताप के स्वर में बिच्छू बोला— "भाई! स्वभाव का परिवर्तन बड़ा कठिन कार्य है। जैसे ही किसी वस्तु का स्पर्श मेरे शरीर से होता है। स्वभाव वश डंक अपना कार्य पूर्ण कर देता है। मै अपने स्वभाव को वश में न कर सका। मुझे क्षमा करें।
सचमुच वे व्यक्ति कितने सम्माननीय जो अपने स्वभाव को नियन्त्रित करने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। और जिन्होंने आत्मपरिष्कार द्वारा अपने स्वभाव को वश में कर लिया है।
बिच्छू का दुःस्वभाव उसके लिए ही नहीं केकड़े के लिए भी प्राणघातक सिद्ध हुआ। यह घटना−क्रम उन सब पर भी आये दिन घटित होता रहता है जो न तो अपने दुःस्वभाव के दुष्परिणामों का विचार करते हैं और न उसे सुधारने क प्रयत्न।
ठीक इसी तरह काम, क्रोध, लालच आदि के स्वाभाव वाले आदमी भी मौका मिलते ही अपना अपना स्वरुप दिखा देते है